बिक रहा है पानी,पवन बिक न जाए ,
बिक गयी है धरती, गगन बिक न जाए...
चाँद पर भी बिकने लगी है जमीं ,
डर है की सूरज की तपन बिक न जाए...
हर जगह बिकने लगी है स्वार्थ नीति,
डर है की कहीं धर्म बिक न जाए...
देकर दहॆज ख़रीदा गया है अब दुल्हे को ,
कहीं उसी के हाथों दुल्हन बिक न जाए...
हैं हर काम की रिश्वत ले रहे ये नेता ,
कही इन्हीं के हाथों वतन बिक न जाए...
सरे आम बिकने लगे अब तो सांसद ,
डर है की कहीं संसद भवन बिक न जाए...
आदमी मरा तो भी आँखें खुली हुई हैं
डरता है मुर्दा भी, कहीं कफ़न बिक न जाए॥