Sunday 16 May 2021

Work From Home

आज जिंदगी में 1st टाईम
Work From Home कर राहा था
Internet और Electricity कही रुक ना जाये
इस बात से थोडा डर रहा था

ऑफीस के Formal Shirts को
इस्त्री करने का मन नही कर राहा था
थोडीसी ढिली थोडीसी मैली
एक T-shirt पे दिन गुजर राहा था

वो मशिनवाली coffee नही
आज अद्रक वाली चाय थी
टीम लीडर के Instructions नही
आज घरवालो कि राय थी

मेरे इस Room का
कुछ अलग हि माहोल था
हर आधे घंटे में बजनेवाला
Manager का वो Call था

कई दिनो बाद आज
Lunch में सब्जी गरम थी
Tiffin कि जगा थाली और
ताज़ी रोटी भी नरम थी

ना जाने ये सिलसिला
और कितने दिन चलेगा ?
अभी Manager को मेल किया है कि
Corona खतम होणे के बाद
क्या फिर Work From Home मिलेगा ?

Friday 7 August 2020

राह संघर्ष की जो चलता है

राह संघर्ष की जो चलता है,
वो ही संसार को बदलता है।
जिसने रातों से जंग जीती है,
सूर्य बनकर वही निकलता है।

मन नही करता

मन नही करता
कभी नींद आती थी..
आज सोने को “मन” नही करता,
कभी छोटी सी बात पर आंसू बह जाते थे..
आज रोने तक का “मन” नही करता,
जी करता था लूटा दूं खुद को या लुटजाऊ खुद पे
आज तो खोने को भी “मन” नही करता,
पहले शब्द कम पड़ जाते थे बोलने को..
लेकिन आज मुह खोलने को “मन” नही करता,
कभी कड़वी याद मीठे सच याद आते हैं..
आज सोचने तक को “मन” नही करता,
मैं कैसा था? और कैसा हो गया हूं
लेकिन आज तो यह भी सोचने को “मन” नही करता।

Sunday 28 October 2018

करवा चौथ के शुभ अवसर पर बहुत खुबसूरत पक्तियाँ :-

करवा चौथ के शुभ अवसर पर बहुत खुबसूरत पक्तियाँ :-

चांद भी क्या खूब है,
न सर पर घूंघट है,
न चेहरे पे बुरका,

कभी करवाचौथ का हो गया,
तो कभी ईद का,
तो कभी ग्रहण का

अगर

ज़मीन पर होता तो
टूटकर विवादों मे होता,
अदालत की सुनवाइयों में होता,
अखबार की सुर्ख़ियों में होता,

लेकिन

शुक्र है आसमान में बादलों की गोद में है,
इसीलिए ज़मीन में कविताओं और ग़ज़लों में महफूज़ है”

करवाचौथ की शुभकामनाएँ

Saturday 18 August 2018

मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना


ऊँचे पहाड़ पर,

पेड़ नहीं लगते,

पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
          जमती है सिर्फ बर्फ,
          जो, कफन की तरह सफेद और,
          मौत की तरह ठंडी होती है।
          खेलती, खिल-खिलाती नदी,
          जिसका रूप धारण कर,
          अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनन्दन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
          किन्तु कोई गौरैया,
          वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
          ना कोई थका-मांदा बटोही,
          उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफि नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
          जो जितना ऊँचा,
          उतना एकाकी होता है,
          हर भार को स्वयं ढोता है,
          चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
          मन ही मन रोता है।

जरूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंट सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
          भीड़ में खो जाना,
          यादों में डूब जाना,
          स्वयं को भूल जाना,
          अस्तित्व को अर्थ,
          जीवन को सुगंध देता है।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
          किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
          कि पाँव तले दूब ही न जमे,
          कोई कांटा न चुभे,
          कोई कलि न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,
हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।

          मेरे प्रभु!
          मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
          गैरों को गले न लगा सकूँ,
          इतनी रुखाई कभी मत देना।

- अटल बिहारी वाजपेयी


Wednesday 15 August 2018

जब भारत आज़ाद हुआ था| आजादी का राज हुआ था||

जब भारत आज़ाद हुआ था|
आजादी का राज हुआ था||
वीरों ने क़ुरबानी दी थी|
तब भारत आज़ाद हुआ था||


भगत सिंह ने फांसी ली थी|
इंदिरा का जनाज़ा उठा था||
इस मिटटी की खुशबू ऐसी थी
तब खून की आँधी बहती थी||


वतन का ज़ज्बा ऐसा था|
जो सबसे लड़ता जा रहा था||
लड़ते लड़ते जाने गयी थी|
तब भारत आज़ाद हुआ था||


फिरंगियों ने ये वतन छोड़ा था|
इस देश के रिश्तों को तोडा था||
फिर भारत दो भागो में बाटा था|
एक हिस्सा हिन्दुस्तान था||


दूसरा पाकिस्तान कहलाया था|
सरहद नाम की रेखा खींची थी||
जिसे कोई पार ना कर पाया था|
ना जाने कितनी माये रोइ थी,


ना जाने कितने बच्चे भूके सोए थे,
हम सब ने साथ रहकर
एक ऐसा समय भी काटा था||
विरो ने क़ुरबानी दी थी
तब भारत आज़ाद हुआ था||


हैप्पी इंडिपेंडेंस डे 2018


Friday 27 July 2018

कुछ बेपरवाह और बेहद बेफिक्री सा गुजरा था …

कुछ बेपरवाह और बेहद बेफिक्री सा गुजरा था । 


पलट कर देखा तो पता लगा वो मेरे जीवन का सबसे मासूम टुकड़ा था । 


अरे अब जहन में आया वो तो धुल में लिपटा हुआ मेरा सुनहरा बचपन था । 


मेरा चिल्लरो से भरा खन खन करता वो गुल्लक, वो छुपम छपाई कड़ी दुपहरी में भी देती थी ठंडक ।


 वो बारिश के पानी में कागज की ढेरो नाव चलाना ,वो मीठी गोलिया भी लगती थी खुशियों का खजाना । 


छुट्टी के दिन सारा मोहल्ला नाप लेते थे ,उन झूठ-मूठ के खेलो को भी बड़ी सच्चाई से खेलते थे। 


वो स्कूल के बस्तों को हर रोज सजाना ,वो स्कूल में ही कभी पेन्सिल कभी रबड़ का खो जाना । 


वो छुट्टी की घंटी बजते ही यूँ दौड़ लगाना, न जाने कहा खो गया वो मनमौजी जमाना । 


उन गर्मी की छुट्टियों में हुल्लड़ मचाना , शाम को माँ की डांट सुनकर ही घर वापस जाना । 


उन रेत के ढेरों से सुन्दर आशियाँ बनाना , कितनी आसान लगती थी ये जिंदगी । 


बड़ा ही नासमझ था वो गुजरा हुआ बचपन का जमाना । 


वो दोस्तों से झगड़ना वो रूठना मनाना , वो परीक्षा की घड़िया ,वो किताबों का जमाना । 


बचपन में होती थी त्योहारों की असली ख़ुशी ,अब तो हर त्यौहार लगता है एक आम सा दिन । 


न जाने कहा खो गये  वो  सब नादान असली चेहरे , बड़े होकर लगा लिए सबने चेहरे पे न जाने कितने चेहरे । 


काश वो बेफिक्री के दिन मै फिर से जी सकती , काश उन  दिनों में वापस जा के कुछ देर ठहर सकती ।