कुछ बेपरवाह और बेहद बेफिक्री सा गुजरा था ।
पलट कर देखा तो पता लगा वो मेरे जीवन का सबसे मासूम टुकड़ा था ।
अरे अब जहन में आया वो तो धुल में लिपटा हुआ मेरा सुनहरा बचपन था ।
मेरा चिल्लरो से भरा खन खन करता वो गुल्लक, वो छुपम छपाई कड़ी दुपहरी में भी देती थी ठंडक ।
वो बारिश के पानी में कागज की ढेरो नाव चलाना ,वो मीठी गोलिया भी लगती थी खुशियों का खजाना ।
छुट्टी के दिन सारा मोहल्ला नाप लेते थे ,उन झूठ-मूठ के खेलो को भी बड़ी सच्चाई से खेलते थे।
वो स्कूल के बस्तों को हर रोज सजाना ,वो स्कूल में ही कभी पेन्सिल कभी रबड़ का खो जाना ।
वो छुट्टी की घंटी बजते ही यूँ दौड़ लगाना, न जाने कहा खो गया वो मनमौजी जमाना ।
उन गर्मी की छुट्टियों में हुल्लड़ मचाना , शाम को माँ की डांट सुनकर ही घर वापस जाना ।
उन रेत के ढेरों से सुन्दर आशियाँ बनाना , कितनी आसान लगती थी ये जिंदगी ।
बड़ा ही नासमझ था वो गुजरा हुआ बचपन का जमाना ।
वो दोस्तों से झगड़ना वो रूठना मनाना , वो परीक्षा की घड़िया ,वो किताबों का जमाना ।
बचपन में होती थी त्योहारों की असली ख़ुशी ,अब तो हर त्यौहार लगता है एक आम सा दिन ।
न जाने कहा खो गये वो सब नादान असली चेहरे , बड़े होकर लगा लिए सबने चेहरे पे न जाने कितने चेहरे ।
काश वो बेफिक्री के दिन मै फिर से जी सकती , काश उन दिनों में वापस जा के कुछ देर ठहर सकती ।
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